बुधवार, 19 अगस्त 2009

भारत के लाल कब तक यूं ही गंवाये जाते रहेंगे ?

ऐसे शायद कम ही मौके आते हों कि पुलिस या सुरक्षा बलों द्वारा की जा रही फर्जी मुठभेड़ को कोई बाकायदा कैमरे में कैद कर ले और वे तस्वीरें पूरे सूबे को आन्दोलित कर दें। तेईस जुलाई 2009 को इम्फाल की सड़कों पर 22 साला चोंगखाम संजीत और रबीना देवी को जिस तरह दिनदहाडे मार दिया गया, जिसकी तस्वीरें अंग्रेजी साप्ताहिक 'तहलका' और बाद में कई अन्य अख़बारों में प्रकाशित हुई हैं। फर्जी मुठभेड़ की यह घटना - जिसके लिए पुलिस ने खुद अपनी पीठ थपथपायी थी - उसने फिलवक्त समूचे राज्य को आन्दोलित कर दिया है। अपराधियों को दण्डित करने की मांग के साथ लोग कुख्यात सशस्त्रा बल विशेष अधिकार कानून की वापसी की मांग को लेकर भी सड़कों पर उतरे हैं।
इस व्यापक जनान्दोलन की अगुआई 'अपुनबा लेप' नामक नागरिक संगठन कर रहा है। इसे जनान्दोलन का दबाव कहेंगे कि वे कमाण्डो जिन्होंने शहर की फार्मेसी के अन्दर जाकर संजीत को मार डाला और बाद में उसकी लाश को एक ट्रक में फेंक दिया, और इस आपाधापी मे एक गर्भवती महिला भी मार दी गयी, उन सभी को निलम्बित कर दिया गया है।
मणिपुर के इतिहास से वाकीफ लोग बता सकते हैं कि संजीत की मौत कोई अपवाद नहीं है। सुरक्षा बलों एवम मिलिटेण्ट समूहों का जो दबदबा वहां है, उसे देखते हुए ऐसी मौतें अक्सर देखने में आती हैं। लोगों को याद होगा कि बमुश्किल पांच साल पहले मणिपुर की ही एक अन्य युवती थांगजाम मनोरमा के साथ हुए सामूहिक बलात्कार और उसकी हत्या ने पूरे सूबे को इसी तरह आन्दोलित किया था। सशस्त्र बल अधिनियम की वापसी के लिए उन दिनों भी आवाज़ बुलन्द हुई थी।
10 जुलाई 2004 की रात को असम राइफल्स के जवानों का एक दस्ता खुमानलीमा के घर पहुंचा था, जहां से वे उनकी युवा बेटी थांगजाम मनोरमा को उठा कर ले गए थे। उनका कहना था कि मनोरमा मणिपुर में जारी उग्रवादी आन्दोलन की सदस्या है और इसी सम्बन्ध में उन्हें कुछ जरूरी पूछताछ करनी है। उन्होंने यह भरोसा भी दिलाया था कि सुबह तक छोड़ देंगे। अगले दिन पास के जंगलों में थांगजाम मनोरमा मिली अवश्य लेकिन जिन्दा नहीं बल्कि एक क्षतविक्षत लाश के रूप में, अपने जिस्म पर अत्याचार की तमाम निशानियां लिए हुए। जाहिर था कि असम राइफल्स के 'रणबांकुरों' ने सूचनाएं पाने के लिए उसे प्रचण्ड यातनांए और उस पर सामूहिक बलात्कार भी किया था।
वह बात अब इतिहास हो चुकी है कि किस तरह थांगजाम मनोरमा के अत्याचारियों को दण्डित करने के लिए एक जबरदस्त जनान्दोलन खड़ा हुआ था, जिसने पूरे सूबे को अपने चपेट में लिया था। इस दौरान इन्साफ की मांग करते हुए मणिपुर की महिलाओं के एक छोटेसे हिस्से द्वारा उठाये सुनियोजित एवं सुविचारित कदम की महज राष्ट्रीय मीडिया ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया में चर्चा हुई थी। 15 जुलाई 2004 के दिन असम राईफल्स के इलाकाई मुख्यालय के सामने सूबे की चन्द प्रतिष्ठित एवम बुजुर्ग महिलाओं ने बाकायदा निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन किया था। वे अपने साथ जो बैनर लायी थीं उस पर लिखा था : 'भारतीय सेना आओ हम पर बलात्कार करो' ' भारतीय सैनिकों आओ हमारा मांस नोचो'। मीडिया के सामने उठाये गये इस कदम ने गोया इस समूचे आन्दोलन को नयी उंचाइयों पर ले जाने का काम किया।
यह साफ है इन बुजुर्ग महिलाओं का वह ऐतिहासिक प्रदर्शन या मणिपुर की जनता का लम्बा शान्तिपूर्ण आन्दोलन या उसके समर्थन में देश के अलग-अलग हिस्सों में उठी सरगर्मियां या उन दिनों सत्तासीन हुई मनमोहन सिंह सरकार द्वारा अधानियम की समीक्षा के लिए बनायी गयी न्यायाधीश जीवन रेड्डी कमेटी - जिसने साफ लब्जों में कानून को जनपक्षीय बनाने के लिए सुझाव दिए थे - कोईभी काम नहीं आया है। क्या यह पूछा जा सकता है कि जमूहर(लोक) के नाम चल रहे इस तंत्र में जिसे दुनिया की सबसे बड़ी जम्हूरियत कहा जाता है संजीत, थांगजाम मनोरमा, खुमानलीमा जैसे आम कहे जानेवाले लोगों के लिए इन्साफ बदा है या नहीं। अधिक चिन्ताजनक बात यह है कि शेष मुल्क के लोग मनोरमा, खुमानलीमा या सात सूबों के इन 'सेवन सिस्टर्स' में रहनेवाले लोगों की दुखों-तकलीफों से बेहद कम परिचित हैं।
कुल मिला कर उत्तार पूर्व का समूचा वजूद आज भी आम जनसाधारणा की बात छोड़ दें, जागरूक लोगों के 'चेतना के हाशिये पर' ही है। 'सैन्यीकरण की मुखालिफत और सशस्त्र बल अधिनियम की वापसी के लिए बनी एक राष्ट्रीय अभियान कमेटी' ने चन्द साल पहले ठीक ही लिखा था : हथियारबन्द उग्रवादी, एक दूसरे समुदाय के आपस के झगड़े, सुरक्षा बलों के साथ होने वाली मुठभेड़..... और दूसरी तरफ पारम्पारिक परिधान में नाचते हुए सुन्दर युवक एवं युवतियां। हकीकत यही रही है कि उत्तरपूर्व हम सभी के लिए परस्परविरोधी प्रतिमाओं का कोलाज रहा है, जो यही बताता है कि उसके पीछे छिपे यथार्थ के बारे में हम कितना कम जानते हैं !'
पिछले दिनों इस कुख्यात कानून के बनने के पचास साल पूरे हुए, जो उपनिवेश के वक्त के काले कानूनों को भी कभी-कभी शर्मसार करता प्रतीत होता है। पता नहीं कितने लोग जानते होंगे कि भारतीय अवाम के असन्तोष को काबू में रखने के लिये अंग्रेजों ने जिन दमनकारी कानूनों को लागू किया था, यह कानून भी उन्हीं का सुधारा हुआ संस्करण है जिसे 1958 में तत्कालीन लोकसभा में तीन घण्टे की चर्चा के बाद और राज्यसभा में महज चार घण्टे की चर्चा के बाद पास किया गया था। और इस तरह आजाद भारत में जनता को नियंत्राण में रखने के लिये अब तक बने तमाम कानूनों में सबसे दमनकारी कहे गये 'सशस्त्र बल ( विशेष अधिकार) अधिनियम' का आविष्कार हुआ था।
अगर आप इस अधिनियम के प्रावधानों पर नज़र डालें तो पता चलेगा कि इस कानून के तहत सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार दिये गये हैं और अगर वे ज्यादतियां भी करें तो भी चाह कर भी लोग अदालत की शरण नहीं ले सकते हैं। अन्दाज़ लगाया जा सकता है कि जहां शान्त क्षेत्रों में गोली चलाने के लिये सबडिवीजनल मैजिस्ट्रैट या उनके ऊपर के किसी अधिकारी की अनुमति आवश्यक होती है वहीं ऐसे कथित 'अशान्त' इलाकों में एक अदद अधिकारी कितना निरंकुश हो सकता है। दूसरे साधारण नागरिकों के लिये अपने ऊपर हुए अत्याचार की जांच शुरू करवाने के लिये केन्द्र सरकार से गुहार लगाना कितना लम्बा, खर्चीला और पीड़ादायी अनुभव होता होगा।हकीकत यही कि विगत 50 साल से इस पर हो रहे अमल ने वहां के निवासी 380 लाख लोगों को आजभी अघोषित आपातकाल की स्थिति में रहने के लिये मजबूर किया है।


अभूतपूर्व दमन अभूतपूर्व किस्म के प्रतिरोधा को जन्म देता है। पिछले नौ साल से मणिपुर की चर्चित कवयित्रि और सामाजिक कार्यकर्ता इरोम शर्मिला इस कानून को निरस्त करने की मांग को लेकर भूख हड़ताल पर हैं।


वह नवम्बर 2000 की बात है जब इरोम की भूख हड़ताल शुरू हुई थी। उस दिन मणिपुर की राजधाानी इम्फाल के हवाई अड्डेवाले इलाके में सुरक्षा बलों ने अंधा धुन्ध गोलियां चला कर दस नागरिकों को मार डाला था। यह कोई पहला वाकया नहीं था जब मणिपुर या उत्तार पूर्व की सड़कें मासूम लोगों के खून से लाल हुई थीं। लेकिन इरोम को लगा कि अब सर पर से पानी गुजरने को है लिहाजा उन्होंने उसी दिन से ऐलान कर दिया था कि आज से वे खाना छोड़ रही हैं।


विगत आठ साल से अधाक समय से उनकी हड़ताल जारी है। फिलवक्त उन्हें जे. एन. अस्पताल में न्यायिक हिरासत में रखा गया है, जहां उन्हें एक नली के जरिये जबरदस्ती खाना खिलाया जाता है। हर पन्दरह दिन पर उन्हें जिले के सेशन जज के सामने पेश किया जाता है जो उनकी रिमाण्ड की मुद्दत को और पन्दरह दिन बढ़ा देता है। यह सिलसिला यूं ही चल रहा है।
उनके भाई सिंहजीत सिंह ने पिछले दिनों बताया कि इतनी लम्बी हड़ताल के कारण इरोम की हड्डियां अन्दर से बेहद कमजोर हो चली हैं। मगर इरोम अपने संकल्प से पीछे हटने को तैयार नहीं हैं।


अमेरिका के नागरिक अधिकार आन्दोलन के चर्चित अश्वेत नेता मार्टिन ल्यूथर किंग ने कहीं लिखा था : 'हम लोग नहीं भूल सकते कि हिटलर ने जर्मनी में जो कुछ किया वह 'कानूनी' था और हंगेरी के स्वतंत्राता सेनानियों ने जो भी किया वह 'गैरकानूनी' था। हिटलर के जर्मनी में एक यहुदी की मदद करना 'गैरकानूनी' था, लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर मैं उन दिनों जर्मनी में रहता तो मैंने अपने यहुदी भाई-बहनों का साथ दिया होता भले ही वह काम गैरकानूनी था.... हम जो अहिंसक प्रत्यक्ष कार्रवाई में उतरते हैं तो तनाव को जनम नहीं देते है। हम लोग बस छिपे तनाव को सतह पर ला देते है।'


क्या अहिंसा के पुजारी की आए दिन कसमें खाने वाले मुल्क के हुक्मरान उस तनाव को दूर करने के लिए संकल्प करेंगे जिसे खुमानलीमा, इरोम शर्मिला जैसों के शान्तिपूर्ण प्रतिरोधा ने सतह पर ला दिया है।

सुभाष गाताडे

(हम समवेत से साभार )

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

बच्चे और हम

पवन meraj
बच्चों भागीदार मानने की बजाए जैसे ही सिर्फ आश्रित की श्रेणी में रख दिया जाता है वैसे ही बच्चा समान दर्जा पाने की बजाए अपने बड़ों के पूर्वाग्रहों और अपूर्ण आकांक्षाओं की पूर्ति का साधन बन जाता है। हमें देखना होगा कि बच्चे खिलौनों से ले कर शिक्षार्थ चुने गए विषयों तक जो भी चुनते हैं वो क्या वास्तव में उन्हीं का चुनाव है। यदि है भी तो क्या यह वास्तव में उन्हीं की मर्जी थी? या फिर बच्चों द्वारा अपने बड़ों की इच्छा जान लेने की क्षमता का परिणाम! यह क्षमता काबिले तारीफ हो सकती है लेकिन क्या यह वह पहली सीड़ी नहीं है जिस पर चढ़ कर बच्चा अपने खुद के व्यक्तित्व को खोने की तरफ जाता है। खैर इन सबसे इतर बच्चों को सम्भालना और सिखाना हम अपनी जिम्मेदारी मानते है ;बिना यह जाने कि सम्भालना और सिखाना वास्तव में होता क्या है और अक्सर बच्चों को मूर्ख मानते हुए, हम बड़ी मेहनत से अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन भी करते हैं। जबकी इन सब के विपरीत कितना आनन्ददायक होता है सीखना......मानो किसी रहस्य की परतें धीरे-धीरे खुल रही हों। और एक बच्चा तो अपनी तबियत से ही जिज्ञासु होता है उसके लिए दुनिया की हर चीज नई है और वह हर क्षितिज से तिर आना चाहता है.....खिलौने मिले तो खेलने से ज्यादा उन्हें खोल कर देखने में मजा आया (जरा हम भी तो देखें कैसे काम करता है यह!)।....फिर ऐसा क्या हो जाता है कि एक जिज्ञासु मासूम बच्चा, एक अजिज्ञासु और जीवन के दोहराव में पिसे हुए आदमी में ढ़ल जाता है। उस जिज्ञासु बच्चे को धीरे-धीरे बड़ा होना था पर हमारे भीतर का वो बच्चा अक्सर बड़ा नहीं होता बल्की मर जाता है।हमारी शिक्षा प्रणाली, सामाजिक दबाव और हमारे अभिभावक अपनी तमाम सद्इच्छाओं के बावजूद, बच्चों को सिखाने की प्रक्रिया में ही उनके सीखने की प्रविृŸिा को कुन्द कर चुके होते हैं। यह एक गम्भीर मसला है कि ज्ञान ठूंस देने की इन सद्इच्छाओं की सूली चढ़े अधिकांश बच्चे हमेशा के लिए सीखने को एक दुरूह और पीड़ादायक (अधिकांश अभिभावक भी यही मानते हैं।) प्रक्रिया मान कर इसे हमेशा के लिए छोड़ देते हैं। इस प्रक्रिया में कुछ बच्चे शायद कुछ जान भी जाते हों लेकिन उनमें से भी अधिकांशतः अपने ज्ञान के उपयोग की क्षमता को खो चुके होते हैं। ठीक वैसे ही जैसे हम साइकिल के बारे में जानते तो बहुत कुछ हों लेकिन हमें उसे चलाना न आता हो।ज्ञान क्या है यह भी बड़ा रोचक प्रश्न है। स्कूली परीक्षाओं के मानदण्डों के विपरीत, वास्तव में ज्ञान क्या नई परिस्थितियों (जिसके बारे में हम कुछ जानते ही न हों।) में हमारे निर्णय लेने की क्षमता ही नहीं है। क्योंकि जीवन मानव को और इतिहास मानव सभ्यता को बार-बार ऐसी ही परिस्थियों में डालता आया है और ऐसे में उसके फैसलों ने ही उसके विकास की दिशा तय की है। सीखने और सिखाने का उद्देश्य दरअसल यह तय करना है कि आने वाली पीढ़ी अपनी सामाजिक सीढ़ी पर कैसे चढ़ती है। इसका वास्तविक उद्देश्य समानता, प्रेम और विकास के अधिकारभाव को विकसित करना है। लेकिन इसके विपरीत बच्चों के पालन-पोषण की प्रक्रिया में ही उनमें दासत्व का एक भाव हमेशा के लिए विकसित कर दिया जाता है। शिक्षा के नाम पर उन्हें मिलती हैं अपने बड़ों की सीमाएं, भय, पूर्वाग्रह और कमजोरियां। और शिष्टाचार के तो क्या कहने जिसने बच्चों को अपनी बात भी न कहने दी। कितना भयावह है कि शिष्ट होने के नाम पर हमने सीखा अपने मनोभावों को दबा लेना और हम बन गए एक दोहरे चरित्र वाले व्यक्ति, जो सोचता कुछ है करना कुछ और चाहता है और करता कुछ और है। बच्चे ऐसे होते नहीं हैं बल्की उन्हें ऐसा बनाया जाता है.....जबरजस्ती पीड़ा देते हुए। परिणाम में मिलता है एक इतिहासग्रस्त कमजोर व्यक्तित्व जो कुछ भी नया करने से डरता है। शिक्षा और पुस्तकों का सही उद्देश्य हमें इतिहासबोध से लैस करना, हमारी भविष्यदृष्टि की क्षमता का विकास करना और हमें सच्चे अर्थों मंे साहसी बनाना है। इतिहासग्रस्तता हमें यह तो बताती है कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फंूक कर पीता है लेकिन यह इतिहासबोध ही है जो हमें सिखा पाता है कि छाछ भी फूंक-फूंक कर पीते रहना कोई अकलमन्दी का काम नहीं। इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि स्कूली स्तर पर दिया जाने वाला ज्ञान एक दम कूड़ा है। वहां सीखाई जाने वाली बाते हमारे इतिहासबोध के लिए बहुत आवश्यक हैं लेकिन इसकी प्रक्रिया उबाऊ और समझा सकने में अक्षम जरूर है। जोशीले गुरूजन कभी-कभी महत्वाकांक्षी तौर तरीके अपना जरूर लेते हैं परन्तु वे भी अधिकांशतः सीखने के लिए विकसित किए गए साधनों को ही साध्य बना डालते हैं।
ऐसे माहौल में हमें कुछ सायास प्रयास करने होंगे जिससे न सिर्फ आवश्यक ज्ञान रोचक ढ़ंग से उनके सामने लाए बल्कि शिक्षकों समेत तमाम बड़ों को भी ऐसी सामग्री मुहय्या करवानी होगी जो उन्हें बता सके कि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में वास्तविक गड़बड़ क्या है। संक्षेप में कहूं तो हमें अपने प्रयासों से वर्तमान शिक्षा को ‘‘वास्तविक ज्ञान’’ के सोपान की तरफ ले जाना होगा और बचपन को सामाजिक व आर्थिक स्तर, शारीरिक व मानसिक क्षमताओं तथा भौगोलिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में देखना होगा।
मेरे लिए इस तरह के प्रयास समानता, विकास और अधिकार के लिए चल रही दूसरी लड़ाइयों जितने ही महत्वपूर्ण हैं। इस तरह के प्रयास लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करेंगे और इनका विस्तार निश्चित रूप से भविष्य के बेहतर समाज की आधारभूमि को बनाने में मदद पहुंचाएगा।
इस सन्दर्भ में आवश्यक होगा कि अपने उद्देश्य को पाने के लिए हम एक ठोस याजना और उसको अमल में लाने के लिए एक वृहद नेटवर्क तैयार करें जिसमें सरकारी-गैर सरकारी स्कूलों से ले कर तमाम दूसरी संस्थाएं भी शामिल हों जो इस दिशा में कार्य करना चाहती हों।

शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

२७ सितम्बर को युवा दिवस मनाएं



साथियों ,
जैसा कि आप जानते ही हैं कि २७ सितम्बर इस देश के युवाओं की क्रान्तिकारी चेतना के सर्वोत्कृष्ट प्रतीक शहीद भगत सिंह का जन्म दिवस है। अक्सर उन्हें केवल एक रूमानी क्रान्तिकारी की तरह पेश किया जाता है जिसने हंसते-हंसते फांसी का फ़न्दा चूम लिया। लेकिन अनेकों लेखों तथा कोर्ट में दिये गये उनके बयानों से स्पष्ट है कि वह एक विचारशील क्रान्तिद्रष्टा थे जो अपने तमाम दूसरे साथियों के साथ इस देश को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शिकंजे से छुडाकर एक सच्चे समाजवादी गणतंत्र की स्थापना करना चाहते थे। आज़ादी से उनका अभिप्राय हर तरह के शोषण और अत्याचार से मुक्ति का था तभी तो वह कहते थे कि '' अगर गोरे अंग्रेज़ों की जगह काले अंग्रेज़ सत्ता में आ गये तो इस आज़ादी का देश के युवाओं, किसानों और मज़दूरों के लिये कोई अर्थ नहीं होगा।'' यही नहीं वह हर तरह की सांप्रदायिकता के भी ख़िलाफ़ थे जिसके प्रमाण उनके धर्म संबंधी अनेक आलेख हैं।



आज आज़ादी के ६२ साल बाद भी उनके स्वप्न अधूरे से लगते हैं। ''युवा संवाद'' उनके आदर्शों के प्रति प्रतिबद्ध सामाजिक-सांस्कृतिक समूह है। हम चाहते हैं कि इस महान शहीद के विचार जन-जन तक पहुंचे। इसीलिये हमने आगामी २७ सितंबर को प्रदेश भर में युवा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया है। इस अवसर पर हमारी मांग है कि



१) २७ सितंबर को ''युवा दिवस'' घोषित किया जाये।
२) भगत सिंह एवम उनके साथियों के आलेख पाठ्यक्रमों में शामिल किये जायें।
३) भगत सिंह की तस्वीर शासकीय कार्यालयों तथा स्कूल-कालेज़ों में लगायी जाये।


इन मांगों के समर्थन में हम व्यापक हस्ताक्षर अभियान आगामी १४ अगस्त से चलायेंगे।
क्या आप हमारा साथ नहीं देंगे?