ऐसे शायद कम ही मौके आते हों कि पुलिस या सुरक्षा बलों द्वारा की जा रही फर्जी मुठभेड़ को कोई बाकायदा कैमरे में कैद कर ले और वे तस्वीरें पूरे सूबे को आन्दोलित कर दें। तेईस जुलाई 2009 को इम्फाल की सड़कों पर 22 साला चोंगखाम संजीत और रबीना देवी को जिस तरह दिनदहाडे मार दिया गया, जिसकी तस्वीरें अंग्रेजी साप्ताहिक 'तहलका' और बाद में कई अन्य अख़बारों में प्रकाशित हुई हैं। फर्जी मुठभेड़ की यह घटना - जिसके लिए पुलिस ने खुद अपनी पीठ थपथपायी थी - उसने फिलवक्त समूचे राज्य को आन्दोलित कर दिया है। अपराधियों को दण्डित करने की मांग के साथ लोग कुख्यात सशस्त्रा बल विशेष अधिकार कानून की वापसी की मांग को लेकर भी सड़कों पर उतरे हैं।
इस व्यापक जनान्दोलन की अगुआई 'अपुनबा लेप' नामक नागरिक संगठन कर रहा है। इसे जनान्दोलन का दबाव कहेंगे कि वे कमाण्डो जिन्होंने शहर की फार्मेसी के अन्दर जाकर संजीत को मार डाला और बाद में उसकी लाश को एक ट्रक में फेंक दिया, और इस आपाधापी मे एक गर्भवती महिला भी मार दी गयी, उन सभी को निलम्बित कर दिया गया है।
मणिपुर के इतिहास से वाकीफ लोग बता सकते हैं कि संजीत की मौत कोई अपवाद नहीं है। सुरक्षा बलों एवम मिलिटेण्ट समूहों का जो दबदबा वहां है, उसे देखते हुए ऐसी मौतें अक्सर देखने में आती हैं। लोगों को याद होगा कि बमुश्किल पांच साल पहले मणिपुर की ही एक अन्य युवती थांगजाम मनोरमा के साथ हुए सामूहिक बलात्कार और उसकी हत्या ने पूरे सूबे को इसी तरह आन्दोलित किया था। सशस्त्र बल अधिनियम की वापसी के लिए उन दिनों भी आवाज़ बुलन्द हुई थी।
10 जुलाई 2004 की रात को असम राइफल्स के जवानों का एक दस्ता खुमानलीमा के घर पहुंचा था, जहां से वे उनकी युवा बेटी थांगजाम मनोरमा को उठा कर ले गए थे। उनका कहना था कि मनोरमा मणिपुर में जारी उग्रवादी आन्दोलन की सदस्या है और इसी सम्बन्ध में उन्हें कुछ जरूरी पूछताछ करनी है। उन्होंने यह भरोसा भी दिलाया था कि सुबह तक छोड़ देंगे। अगले दिन पास के जंगलों में थांगजाम मनोरमा मिली अवश्य लेकिन जिन्दा नहीं बल्कि एक क्षतविक्षत लाश के रूप में, अपने जिस्म पर अत्याचार की तमाम निशानियां लिए हुए। जाहिर था कि असम राइफल्स के 'रणबांकुरों' ने सूचनाएं पाने के लिए उसे प्रचण्ड यातनांए और उस पर सामूहिक बलात्कार भी किया था।
वह बात अब इतिहास हो चुकी है कि किस तरह थांगजाम मनोरमा के अत्याचारियों को दण्डित करने के लिए एक जबरदस्त जनान्दोलन खड़ा हुआ था, जिसने पूरे सूबे को अपने चपेट में लिया था। इस दौरान इन्साफ की मांग करते हुए मणिपुर की महिलाओं के एक छोटेसे हिस्से द्वारा उठाये सुनियोजित एवं सुविचारित कदम की महज राष्ट्रीय मीडिया ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया में चर्चा हुई थी। 15 जुलाई 2004 के दिन असम राईफल्स के इलाकाई मुख्यालय के सामने सूबे की चन्द प्रतिष्ठित एवम बुजुर्ग महिलाओं ने बाकायदा निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन किया था। वे अपने साथ जो बैनर लायी थीं उस पर लिखा था : 'भारतीय सेना आओ हम पर बलात्कार करो' ' भारतीय सैनिकों आओ हमारा मांस नोचो'। मीडिया के सामने उठाये गये इस कदम ने गोया इस समूचे आन्दोलन को नयी उंचाइयों पर ले जाने का काम किया।
यह साफ है इन बुजुर्ग महिलाओं का वह ऐतिहासिक प्रदर्शन या मणिपुर की जनता का लम्बा शान्तिपूर्ण आन्दोलन या उसके समर्थन में देश के अलग-अलग हिस्सों में उठी सरगर्मियां या उन दिनों सत्तासीन हुई मनमोहन सिंह सरकार द्वारा अधानियम की समीक्षा के लिए बनायी गयी न्यायाधीश जीवन रेड्डी कमेटी - जिसने साफ लब्जों में कानून को जनपक्षीय बनाने के लिए सुझाव दिए थे - कोईभी काम नहीं आया है। क्या यह पूछा जा सकता है कि जमूहर(लोक) के नाम चल रहे इस तंत्र में जिसे दुनिया की सबसे बड़ी जम्हूरियत कहा जाता है संजीत, थांगजाम मनोरमा, खुमानलीमा जैसे आम कहे जानेवाले लोगों के लिए इन्साफ बदा है या नहीं। अधिक चिन्ताजनक बात यह है कि शेष मुल्क के लोग मनोरमा, खुमानलीमा या सात सूबों के इन 'सेवन सिस्टर्स' में रहनेवाले लोगों की दुखों-तकलीफों से बेहद कम परिचित हैं।
कुल मिला कर उत्तार पूर्व का समूचा वजूद आज भी आम जनसाधारणा की बात छोड़ दें, जागरूक लोगों के 'चेतना के हाशिये पर' ही है। 'सैन्यीकरण की मुखालिफत और सशस्त्र बल अधिनियम की वापसी के लिए बनी एक राष्ट्रीय अभियान कमेटी' ने चन्द साल पहले ठीक ही लिखा था : हथियारबन्द उग्रवादी, एक दूसरे समुदाय के आपस के झगड़े, सुरक्षा बलों के साथ होने वाली मुठभेड़..... और दूसरी तरफ पारम्पारिक परिधान में नाचते हुए सुन्दर युवक एवं युवतियां। हकीकत यही रही है कि उत्तरपूर्व हम सभी के लिए परस्परविरोधी प्रतिमाओं का कोलाज रहा है, जो यही बताता है कि उसके पीछे छिपे यथार्थ के बारे में हम कितना कम जानते हैं !'
पिछले दिनों इस कुख्यात कानून के बनने के पचास साल पूरे हुए, जो उपनिवेश के वक्त के काले कानूनों को भी कभी-कभी शर्मसार करता प्रतीत होता है। पता नहीं कितने लोग जानते होंगे कि भारतीय अवाम के असन्तोष को काबू में रखने के लिये अंग्रेजों ने जिन दमनकारी कानूनों को लागू किया था, यह कानून भी उन्हीं का सुधारा हुआ संस्करण है जिसे 1958 में तत्कालीन लोकसभा में तीन घण्टे की चर्चा के बाद और राज्यसभा में महज चार घण्टे की चर्चा के बाद पास किया गया था। और इस तरह आजाद भारत में जनता को नियंत्राण में रखने के लिये अब तक बने तमाम कानूनों में सबसे दमनकारी कहे गये 'सशस्त्र बल ( विशेष अधिकार) अधिनियम' का आविष्कार हुआ था।
अगर आप इस अधिनियम के प्रावधानों पर नज़र डालें तो पता चलेगा कि इस कानून के तहत सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार दिये गये हैं और अगर वे ज्यादतियां भी करें तो भी चाह कर भी लोग अदालत की शरण नहीं ले सकते हैं। अन्दाज़ लगाया जा सकता है कि जहां शान्त क्षेत्रों में गोली चलाने के लिये सबडिवीजनल मैजिस्ट्रैट या उनके ऊपर के किसी अधिकारी की अनुमति आवश्यक होती है वहीं ऐसे कथित 'अशान्त' इलाकों में एक अदद अधिकारी कितना निरंकुश हो सकता है। दूसरे साधारण नागरिकों के लिये अपने ऊपर हुए अत्याचार की जांच शुरू करवाने के लिये केन्द्र सरकार से गुहार लगाना कितना लम्बा, खर्चीला और पीड़ादायी अनुभव होता होगा।हकीकत यही कि विगत 50 साल से इस पर हो रहे अमल ने वहां के निवासी 380 लाख लोगों को आजभी अघोषित आपातकाल की स्थिति में रहने के लिये मजबूर किया है।
अभूतपूर्व दमन अभूतपूर्व किस्म के प्रतिरोधा को जन्म देता है। पिछले नौ साल से मणिपुर की चर्चित कवयित्रि और सामाजिक कार्यकर्ता इरोम शर्मिला इस कानून को निरस्त करने की मांग को लेकर भूख हड़ताल पर हैं।
वह नवम्बर 2000 की बात है जब इरोम की भूख हड़ताल शुरू हुई थी। उस दिन मणिपुर की राजधाानी इम्फाल के हवाई अड्डेवाले इलाके में सुरक्षा बलों ने अंधा धुन्ध गोलियां चला कर दस नागरिकों को मार डाला था। यह कोई पहला वाकया नहीं था जब मणिपुर या उत्तार पूर्व की सड़कें मासूम लोगों के खून से लाल हुई थीं। लेकिन इरोम को लगा कि अब सर पर से पानी गुजरने को है लिहाजा उन्होंने उसी दिन से ऐलान कर दिया था कि आज से वे खाना छोड़ रही हैं।
विगत आठ साल से अधाक समय से उनकी हड़ताल जारी है। फिलवक्त उन्हें जे. एन. अस्पताल में न्यायिक हिरासत में रखा गया है, जहां उन्हें एक नली के जरिये जबरदस्ती खाना खिलाया जाता है। हर पन्दरह दिन पर उन्हें जिले के सेशन जज के सामने पेश किया जाता है जो उनकी रिमाण्ड की मुद्दत को और पन्दरह दिन बढ़ा देता है। यह सिलसिला यूं ही चल रहा है।
उनके भाई सिंहजीत सिंह ने पिछले दिनों बताया कि इतनी लम्बी हड़ताल के कारण इरोम की हड्डियां अन्दर से बेहद कमजोर हो चली हैं। मगर इरोम अपने संकल्प से पीछे हटने को तैयार नहीं हैं।
अमेरिका के नागरिक अधिकार आन्दोलन के चर्चित अश्वेत नेता मार्टिन ल्यूथर किंग ने कहीं लिखा था : 'हम लोग नहीं भूल सकते कि हिटलर ने जर्मनी में जो कुछ किया वह 'कानूनी' था और हंगेरी के स्वतंत्राता सेनानियों ने जो भी किया वह 'गैरकानूनी' था। हिटलर के जर्मनी में एक यहुदी की मदद करना 'गैरकानूनी' था, लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर मैं उन दिनों जर्मनी में रहता तो मैंने अपने यहुदी भाई-बहनों का साथ दिया होता भले ही वह काम गैरकानूनी था.... हम जो अहिंसक प्रत्यक्ष कार्रवाई में उतरते हैं तो तनाव को जनम नहीं देते है। हम लोग बस छिपे तनाव को सतह पर ला देते है।'
क्या अहिंसा के पुजारी की आए दिन कसमें खाने वाले मुल्क के हुक्मरान उस तनाव को दूर करने के लिए संकल्प करेंगे जिसे खुमानलीमा, इरोम शर्मिला जैसों के शान्तिपूर्ण प्रतिरोधा ने सतह पर ला दिया है।
सुभाष गाताडे
(हम समवेत से साभार )