शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

हिन्दुत्व: किसका उद्धार, कैसी मुक्ति?



आरएसएस का मुखिया चुना नहीं जाता है। नए सरसंघचालक का नामांकन निवृत्तमान सरसंघचालक करता है। हाल में, खराब स्वास्थ्य के चलते के। सी. सुदर्शन ने सरसंघचालक का पद त्याग दिया और मोहन भागवत को संघ का नया प्रमुख नियुक्त किया। नियुक्ति के बाद दिए गए अपने पहले भाषण में भागवत ने कहा कि हिन्दुत्व, मुक्तिदायक और उद्धारक है।कुछ वर्षों पहले शिवसेना नेता मनोहर जोशी ने अपने एक चुनावी भाषण में कहा था कि अगर भाजपा-शिवसेना गठबंधन सत्ता में आया तो वह महाराष्ट्र को देश का पहला हिन्दू राज्य बनाएगा। श्री मनोहर जोशी ने गठबंधन की राजनीति के लिए हिन्दुत्व शब्द का इस्तेमाल भी किया था। उन पर चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन का आरोप लगा। मामला अदालत तक पहुंचा और अंततः उच्चतम न्यायालय ने इस मुद्दे के आस-पास छाई वैचारिक धुंध के चलते अपने फैसले में हिन्दुत्व को “जीवन शैली“ निरूपित कर दिया। उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय संघ के बहुत काम आया और इसके बाद से उसने अपने कार्यक्रमों और राजनैतिक अभियानों में हिन्दुत्व शब्द का खुलकर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। अब हमें यह बताया जा रहा है कि हिन्दुत्व उद्धारक और मुक्तिदायक है।भारतीय संदर्भों में उद्धार और मुक्ति का क्या अर्थ है? इनका अर्थ है ऐसी प्रक्रिया जिसके जरिए दलित और महिलाएं समान अधिकार हासिल कर सकें। इनका अर्थ है आदिवासियों और मजदूरांे को समाज में सम्मानजनक स्थान मिलना। दलितों, महिलाओं, आदिवासियों और मजदूरों की बेहतरी के प्रयास स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ही शुरू हो गए थे। भगतसिंह, अम्बेडकर और महात्मा गांधी ने इस दिशा में गहन प्रयास किए। दूसरी ओर थी मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और आरएसएस की राजनीति जो धार्मिक राष्ट्रवाद पर आधारित थी। मुस्लिम लीग का लक्ष्य था इस्लामिक राज्य की स्थापना। हिन्दू महासभा और आरएसएस का अंतिम उद्धेश्य था हिन्दू राष्ट्र का निर्माण0। मुस्लिम लीग अपनी विचारधारा को इस्लाम पर आधारित बताती थी और हिन्दू महासभा व संघ का कहना था कि वे हिन्दुत्व के रास्ते पर चलकर हिन्दू राष्ट्र के अपने सपने को साकार करेंगे। मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा-आरएसएस की राजनीति में कई समानताएं थीं। दोनों ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग नहीं लिया और दोनों की ही दलितों, महिलाओं, आदिवासियों आदि की स्थिति में सुधार के लिए चल रहे अभियानों में कोई रूचि नहीं थी।भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन केवल अंग्रेजों से मुक्ति पाने का आंदोलन नहीं था। वह स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्यों की स्थापना का आंदोलन भी था। ये वे मूल्य हैं जो राजाओं और नवाबों के सामंती शासन से मुक्ति दिलाने वाले थे। ये वे मूल्य थे जो आम जनों को मुल्ला-पंडित के चंगुल से निकालने वाले थे। हिन्दुत्व शब्द को गढ़ने वाले थे विनायक दामोदर सावरकर, जिन्होंने सन् 1923 में प्रकाशित अपनी पुस्तक “हू इज़ ए हिन्दू“ में सबसे पहले इस शब्द का इस्तेमाल किया था। हिन्दू धर्म को किसी पैगम्बर ने स्थापित नहीं किया। मूलतः, हिन्दू शब्द भौगोलिक संदर्भ में इस्तेमाल होता था। उन सभी लोगों को हिन्दू कहा गया जो सिन्धु नदी के पूर्व में रहते थे। बाद में वर्ण-आधारित ब्राहम्णवादी धार्मिक परंपरा से लेकर नाथ, तंत्र, सिद्ध व भक्ति जैसी समानता पर आधारित धार्मिक परंपराओं तक हिन्दू धर्म के झण्डे तले आ गए। हिन्दू धर्म में ब्राहम्णवाद का हमेशा से बोलबाला रहा है। आज भी सारी ब्राहम्णवादी परंपराएं, रूढ़ियां और कर्मकाण्ड हिन्दू धर्म का हिस्सा हैं। डाॅ. अम्बेडकर का कहना था कि हिन्दू धर्म दरअसल ब्राहम्णवाद का ही दूसरा नाम है। सावरकर की परिभाषा के अनुसार केवल वह ही हिन्दू है जो सिन्धु नदी से समुद्र तक फैले भारतीय प्रायद्वीप को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानता है। इस परिभाषा से मुसलमान और ईसाई जाहिर तौर पर हिन्दू धर्म की परिधि से बाहर थे। सावरकर ने हिन्दुत्व शब्द को परिभाषित किया है। उनके अनुसार हिन्दुत्व का अर्थ है शुद्ध हिन्दुवाद, जो कि आर्य नस्ल, आर्य संस्कृति और आर्य मूल्यों का सम्मिश्रण है। हिन्दुत्व का आज जो अर्थ है वह है ऐसी राजनीति जो ब्राहम्णवादी मूल्यों पर आधारित है, जो यह मानती है कि हर व्यक्ति के समाज में स्थान का निर्धारण उसके जन्म के साथ ही हो जाता है और जो महिलाओं और दलितों को गुलाम बनाकर रखना चाहती है। संघ का हिन्दुत्व यही हिन्दुत्व है। हिन्दू महासभा और आरएसएस, दोनों को जाति और लिंग आधारित भेदभाव से कोई तकलीफ नहीं है। आरएसएस की नीतियों और कार्यक्रमों से उसका यह सोच झलकता है। मुक्ति देने या उद्धार करने की बात तो दूर रही, आरएसएस दलितों और महिलाओं की स्थिति में पिछले कुछ दशकों में आए सुधार को भी नापसंद करता है। वह महिलाओं और दलितों को पीछे धकेलकर, पचास वर्ष पहले की स्थिति में पहुंचाना चाहता है।आरएसएस केवल पुरूषों का संगठन है। उसका महिला विंग पूर्णतः उसके अधीन है। महिला विंग का नाम है “राष्ट्र सेविका समिति“ - अर्थात, पुरूष हैं स्वयंसेवक और महिलाएं हैं सेविकाएं। हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि दुनिया के सभी पितृसत्तामक संगठन-चाहे वे तालिबान हों, फासिस्ट हों, कट्टरपंथी ईसाई हों या आरएसएस-महिलाओं को पुरूषों के पैरों की जूती मानते हैं। महिलाएं पुरूषों के अधीन हैं, वे पुरूषों की संपत्ति हैं, उन पर हुक्म चलाना पुरूषों का हक है और उन्हें नियंत्रण में रखना पुरूषों का कर्तव्य है। शायद इसलिए आरएसएस के प्रशिक्षित स्वयंसेवक प्रमोद मुतालिक ने मंगलौर में पब मंे बैठी महिलाओं की पिटाई लगाई थी। संघ का मानना है कि महिलाएं क्या करें, क्या पहनें और कहां जाएं, यह सब वह तय करेगा। जहां तक दलितों का प्रश्न है, डाॅ. अम्बेडकर का कहना था कि दलितों को समान दर्जा पाने के लिए संगठित होकर संघर्ष करना होगा। इसके विपरीत, संघ “सामाजिक समरसता मंच“ के जरिए दलितों को वर्तमान व्यवस्था में ही समायोजित करना चाहता है - एक ऐसी व्यवस्था में जिसमें दलितों का दोयम दर्जा बना रहेगा। आरएसएस एकात्म मानवतावाद में भी विश्वास करता है। एकात्म मानवतावाद का सार यह है कि जिस तरह मानव शरीर में विभिन्न काम करने के लिए अलग-अलग अंग हैं उसी तरह समाज में भी अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग समूह हैं और उनकी भूमिका में परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा करने से समाज का संतुलन बिगड़ेगा और सामाजिक व्यवस्था बिखर जाएगी।आरएसएस अपनी असली विचारधारा को आडम्बरपूर्ण शब्दजाल में छुपाने में सिद्धहस्त है। परंतु उसके कार्यकलाप उसके असली इरादों का पर्दाफाश करते हैं। संघ, हिन्दू राष्ट्र के लिए काम करने वाले सभी संगठनों का पिता है। भाजपा, विहिप, वनवासी कल्याण आश्रम आदि के जरिए संघ जो राजनीति करता है उससे उसके असली इरादों को भांपना मुश्किल नहीं है। भाजपा उपाध्यक्ष राजमाता सिंधिया सती प्रथा को उचित ठहराती हैं। विहिप गोहाना में कथित गौहत्या करने वाले दलितों की हत्या को सही करार देती है और आरएसएस लगातार हमें उस गौरवपूर्ण भारत की याद दिलाता है जिसमें मनुस्मृति ही कानून थी। यह प्रसन्नता की बात है कि नए आरएसएस प्रमुख मुक्ति और उद्धार जैसे शब्दों से परिचित हैं। परंतु वे इन शब्दों को बोलने से आगे नहीं जा पाएंगे क्योंकि मुक्ति और उद्धार आरएसएस के एजेन्डे में कहीं नहीं हैं। संघ तो नीची जातियों और महिलाओं को हमेशा के लिए दबाकर रखना चाहता है। वह उनकी आवाज को कुचलने में विश्वास रखता है।

राम पुनियानी

(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, जाने-माने सांप्रदायिकता विरोधी कार्यकर्ता हैं और सन् 2006 के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार के विजेता हैं)



गुरुवार, 30 जुलाई 2009

शांति- समाजवाद- समृद्धि के लिए

आइये मिलकर बनाए एक बेहतर दुनिया...