मंगलवार, 11 अगस्त 2009

बच्चे और हम

पवन meraj
बच्चों भागीदार मानने की बजाए जैसे ही सिर्फ आश्रित की श्रेणी में रख दिया जाता है वैसे ही बच्चा समान दर्जा पाने की बजाए अपने बड़ों के पूर्वाग्रहों और अपूर्ण आकांक्षाओं की पूर्ति का साधन बन जाता है। हमें देखना होगा कि बच्चे खिलौनों से ले कर शिक्षार्थ चुने गए विषयों तक जो भी चुनते हैं वो क्या वास्तव में उन्हीं का चुनाव है। यदि है भी तो क्या यह वास्तव में उन्हीं की मर्जी थी? या फिर बच्चों द्वारा अपने बड़ों की इच्छा जान लेने की क्षमता का परिणाम! यह क्षमता काबिले तारीफ हो सकती है लेकिन क्या यह वह पहली सीड़ी नहीं है जिस पर चढ़ कर बच्चा अपने खुद के व्यक्तित्व को खोने की तरफ जाता है। खैर इन सबसे इतर बच्चों को सम्भालना और सिखाना हम अपनी जिम्मेदारी मानते है ;बिना यह जाने कि सम्भालना और सिखाना वास्तव में होता क्या है और अक्सर बच्चों को मूर्ख मानते हुए, हम बड़ी मेहनत से अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन भी करते हैं। जबकी इन सब के विपरीत कितना आनन्ददायक होता है सीखना......मानो किसी रहस्य की परतें धीरे-धीरे खुल रही हों। और एक बच्चा तो अपनी तबियत से ही जिज्ञासु होता है उसके लिए दुनिया की हर चीज नई है और वह हर क्षितिज से तिर आना चाहता है.....खिलौने मिले तो खेलने से ज्यादा उन्हें खोल कर देखने में मजा आया (जरा हम भी तो देखें कैसे काम करता है यह!)।....फिर ऐसा क्या हो जाता है कि एक जिज्ञासु मासूम बच्चा, एक अजिज्ञासु और जीवन के दोहराव में पिसे हुए आदमी में ढ़ल जाता है। उस जिज्ञासु बच्चे को धीरे-धीरे बड़ा होना था पर हमारे भीतर का वो बच्चा अक्सर बड़ा नहीं होता बल्की मर जाता है।हमारी शिक्षा प्रणाली, सामाजिक दबाव और हमारे अभिभावक अपनी तमाम सद्इच्छाओं के बावजूद, बच्चों को सिखाने की प्रक्रिया में ही उनके सीखने की प्रविृŸिा को कुन्द कर चुके होते हैं। यह एक गम्भीर मसला है कि ज्ञान ठूंस देने की इन सद्इच्छाओं की सूली चढ़े अधिकांश बच्चे हमेशा के लिए सीखने को एक दुरूह और पीड़ादायक (अधिकांश अभिभावक भी यही मानते हैं।) प्रक्रिया मान कर इसे हमेशा के लिए छोड़ देते हैं। इस प्रक्रिया में कुछ बच्चे शायद कुछ जान भी जाते हों लेकिन उनमें से भी अधिकांशतः अपने ज्ञान के उपयोग की क्षमता को खो चुके होते हैं। ठीक वैसे ही जैसे हम साइकिल के बारे में जानते तो बहुत कुछ हों लेकिन हमें उसे चलाना न आता हो।ज्ञान क्या है यह भी बड़ा रोचक प्रश्न है। स्कूली परीक्षाओं के मानदण्डों के विपरीत, वास्तव में ज्ञान क्या नई परिस्थितियों (जिसके बारे में हम कुछ जानते ही न हों।) में हमारे निर्णय लेने की क्षमता ही नहीं है। क्योंकि जीवन मानव को और इतिहास मानव सभ्यता को बार-बार ऐसी ही परिस्थियों में डालता आया है और ऐसे में उसके फैसलों ने ही उसके विकास की दिशा तय की है। सीखने और सिखाने का उद्देश्य दरअसल यह तय करना है कि आने वाली पीढ़ी अपनी सामाजिक सीढ़ी पर कैसे चढ़ती है। इसका वास्तविक उद्देश्य समानता, प्रेम और विकास के अधिकारभाव को विकसित करना है। लेकिन इसके विपरीत बच्चों के पालन-पोषण की प्रक्रिया में ही उनमें दासत्व का एक भाव हमेशा के लिए विकसित कर दिया जाता है। शिक्षा के नाम पर उन्हें मिलती हैं अपने बड़ों की सीमाएं, भय, पूर्वाग्रह और कमजोरियां। और शिष्टाचार के तो क्या कहने जिसने बच्चों को अपनी बात भी न कहने दी। कितना भयावह है कि शिष्ट होने के नाम पर हमने सीखा अपने मनोभावों को दबा लेना और हम बन गए एक दोहरे चरित्र वाले व्यक्ति, जो सोचता कुछ है करना कुछ और चाहता है और करता कुछ और है। बच्चे ऐसे होते नहीं हैं बल्की उन्हें ऐसा बनाया जाता है.....जबरजस्ती पीड़ा देते हुए। परिणाम में मिलता है एक इतिहासग्रस्त कमजोर व्यक्तित्व जो कुछ भी नया करने से डरता है। शिक्षा और पुस्तकों का सही उद्देश्य हमें इतिहासबोध से लैस करना, हमारी भविष्यदृष्टि की क्षमता का विकास करना और हमें सच्चे अर्थों मंे साहसी बनाना है। इतिहासग्रस्तता हमें यह तो बताती है कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फंूक कर पीता है लेकिन यह इतिहासबोध ही है जो हमें सिखा पाता है कि छाछ भी फूंक-फूंक कर पीते रहना कोई अकलमन्दी का काम नहीं। इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि स्कूली स्तर पर दिया जाने वाला ज्ञान एक दम कूड़ा है। वहां सीखाई जाने वाली बाते हमारे इतिहासबोध के लिए बहुत आवश्यक हैं लेकिन इसकी प्रक्रिया उबाऊ और समझा सकने में अक्षम जरूर है। जोशीले गुरूजन कभी-कभी महत्वाकांक्षी तौर तरीके अपना जरूर लेते हैं परन्तु वे भी अधिकांशतः सीखने के लिए विकसित किए गए साधनों को ही साध्य बना डालते हैं।
ऐसे माहौल में हमें कुछ सायास प्रयास करने होंगे जिससे न सिर्फ आवश्यक ज्ञान रोचक ढ़ंग से उनके सामने लाए बल्कि शिक्षकों समेत तमाम बड़ों को भी ऐसी सामग्री मुहय्या करवानी होगी जो उन्हें बता सके कि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में वास्तविक गड़बड़ क्या है। संक्षेप में कहूं तो हमें अपने प्रयासों से वर्तमान शिक्षा को ‘‘वास्तविक ज्ञान’’ के सोपान की तरफ ले जाना होगा और बचपन को सामाजिक व आर्थिक स्तर, शारीरिक व मानसिक क्षमताओं तथा भौगोलिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में देखना होगा।
मेरे लिए इस तरह के प्रयास समानता, विकास और अधिकार के लिए चल रही दूसरी लड़ाइयों जितने ही महत्वपूर्ण हैं। इस तरह के प्रयास लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करेंगे और इनका विस्तार निश्चित रूप से भविष्य के बेहतर समाज की आधारभूमि को बनाने में मदद पहुंचाएगा।
इस सन्दर्भ में आवश्यक होगा कि अपने उद्देश्य को पाने के लिए हम एक ठोस याजना और उसको अमल में लाने के लिए एक वृहद नेटवर्क तैयार करें जिसमें सरकारी-गैर सरकारी स्कूलों से ले कर तमाम दूसरी संस्थाएं भी शामिल हों जो इस दिशा में कार्य करना चाहती हों।

2 टिप्‍पणियां:

Ashok Kumar pandey ने कहा…

बच्चों पर केन्द्रित एक ज़रूरी आलेख।

Ajit ने कहा…

ek zaroori aur badhiya aalekh par hamesha ki tarah vikalp ke sawal par khamosh.
aisa hi hai hamara samaj aur ham.
jab hamare liye hi kuchh achcha nahi to bachcho ke liye????????
shayad kuchh logo ko samajh me aye ki jo sawal aapne uthaya hai wo kitna jaroori hai.